ऐ आईने तू कैसे सच दिखलाता है,
मौन रहकर भी कैसे सब कुछ कह जाता है,
मैं कई मुखोटे पहनकर मिलती हूँ दुनिया से,
कोई मुझे पहचान नहीं पाता है,
बस एक तू ही है जो मेरे अंतर्मन में ले जाकर मुझे,मेरे सच से मिलवाता है
जब मनं में कई बातें लिए,खोजती हूँ एक सच्चा साथी मनं की बात बाँटने को
पर कोई समझ नहीं पाता है,तब हारकर तेरे सामने आती हूँ ,
तू ही मेरी तन्हाई का साथी,मेरा हमराज़ बन जाता है,
बड़ी शिद्दत से आँखों के कोरो में छिपाए कुछ कतरे,ढुलक कर गालों को भिगोते हैं
तब आंसू या पानी में फर्क कर उनमे छिपा मर्म पहचान पाता है,
जो बातें खुद से भी छुपाती हूँ,वो सब तुझसे कह जाती हूँ,
तुझसे की हर बात ,बस रहती है हमारे दरमियाँ कोई और न जान पाता है
तू एक बेजान चीज़ होकर भी,सच्चे साथी सा साथ निभाता है ,
सच्चाई दिखाने की ,चकनाचूर होकर कभी सज़ा भी तू पाता है ,
पर फिर भी तेरे हर टुकड़े में सच का प्रतिबिम्ब ही नज़र आता है ,
ऐ आइने तू कैसे सच दिखलाता है
सोमाली