Sunday 29 March 2020

अनजाने से जज़्बात

अर्थ नहीं जानती पर
कैसे कहूँ की प्रेम नहीं है

जज़्बातों के सैलाब में डूबती उतराती
हर जज़्बात के आगे बेबस हूँ
विमुख हो जाती हूँ सच से अक्सर
तेरे एहसासों से घबराकर

रूबरू होकर खुद से रोज़
न जाने कैसे खुद से हार जाती हूँ

आगे मुकम्मल जहां है मेरे पर 
मैन चंचल बीते वक़्त को जाता है

नफरत नहीं तो मोहब्बत भी नहीं है
अजीब सी कश्मकश है अधूरे रिश्ते की

साथ कि ख्वाहिश भी है और 
दूरियों की दरकार भी

अधूरेपन में पूर्णता की जुस्तजू है 
और एक बेमतलब सी आस भी

मैं रहूँगी मैं, तुम,तुम ही, मिल कर हम न होंगे
अधूरी सी कहानी का मैं सार लिए बैठी हूँ

अर्थ नहीं जानती इस सबका पर
कैसे कहूँ की प्रेम नहीं है।
        
                    -सोमाली