Wednesday, 25 May 2011

आईना


       ऐ आईने तू कैसे सच दिखलाता है,
       मौन रहकर भी कैसे सब कुछ कह जाता है,
       मैं कई मुखोटे पहनकर मिलती हूँ दुनिया से,
       कोई मुझे पहचान नहीं पाता है,
       बस एक तू ही है जो मेरे अंतर्मन में ले जाकर मुझे,मेरे सच से मिलवाता है 
       जब मनं में कई बातें लिए,खोजती हूँ एक सच्चा साथी मनं  की बात बाँटने को
       पर कोई समझ नहीं पाता है,तब हारकर तेरे सामने आती हूँ ,
       तू ही मेरी तन्हाई का साथी,मेरा हमराज़ बन जाता है, 
       बड़ी शिद्दत से आँखों के कोरो में छिपाए कुछ कतरे,ढुलक कर गालों को भिगोते हैं
       तब आंसू  या पानी में फर्क कर उनमे छिपा मर्म पहचान पाता  है,
       जो बातें खुद से भी छुपाती हूँ,वो सब तुझसे कह जाती हूँ,
       तुझसे  की हर बात ,बस रहती है हमारे दरमियाँ कोई और न जान पाता  है
       तू एक बेजान चीज़  होकर भी,सच्चे साथी सा साथ निभाता है ,
       सच्चाई दिखाने  की ,चकनाचूर होकर कभी सज़ा भी तू पाता है ,
       पर फिर भी तेरे हर टुकड़े में सच का प्रतिबिम्ब ही नज़र आता है ,
        ऐ आइने तू कैसे सच दिखलाता है
                                                                         सोमाली
 

4 comments:

  1. अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

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  2. तू एक बेजान चीज़ होकर भी,सच्चे साथी सा साथ निभाता है ,
    सच्चाई दिखाने की ,चकनाचूर होकर कभी सज़ा भी तू पाता है ,
    पर फिर भी तेरे हर टुकड़े में सच का प्रतिबिम्ब ही नज़र आता है ,
    बहुत सुंदर और गहन अभिव्यक्ति लिए हैं पंक्तियाँ...

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  3. somali ji
    sach! bahut hi sadhe tareeke se aapne sawalo par sawal uthaye hain jinka shayad ham ant dhundhana bhi chahen to vo bhi prashn bankar hirah jaate hain .
    bahut hi gahan bhav liye hue hai aapki prstuti.
    bahut bahut dhanyvaad
    poonam

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  4. ऐ आईने तू कैसे सच दिखलाता है,
    मौन रहकर भी कैसे सब कुछ कह जाता है,
    मैं कई मुखोटे पहनकर मिलती हूँ दुनिया से,
    कोई मुझे पहचान नहीं पाता है,

    wah bahut sunder likh hai aapne
    dil ko chu gayi panktiyan

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