एक पाती लिखी उसने
खुद से खुद ही के लिए
सारे शिकवे लिखे, सारे किस्से लिखे,
सारे शिकवे लिखे, सारे किस्से लिखे,
सारे ख्वाब और,लिखे सारे दर्द उसमें,
उन शिकवों का न किया जाना भी लिखा
किस्सों का अधूरा रह जाना लिखा
ख्वाबों का टूट कर बिखरना
और दर्द का न कहा जाना भी लिखा
वो लिखती रही खुद की कहानी
और खुद को ही सुनाती रही
वो पाती उसके दर से चलकर
उसके ही दर तक आती रही
वो लिखती रही वो सुनती रही
बस नही लिख पायी कभी तो
उस अकेलेपन को जिसमे वो खुद,ज़
ही खुद से मुखातिब थी
नहीं लिख पायी तो वो प्यार
जो करती रही वो दिल ही दिल में
पर कह न पायी कभी उसको खोने
के डर से
नहीं लिख पायी वो उस एहसास को
जो रोज़ उसे थोड़ा थोड़ा तोड़ता था।
मगर कब न जाने इन पातियों की राह बदली
और जा पहुंची एक अनजान दर पर
पाने वाली भी अचंभित थी ,परंतु
फिर भी पढ़ गयी उसकी कहानी
फिर एक और फिर एक और
सिलसिला चल निकला अनजान दर पर आने का वो पाती
ख्वाबों का टूट कर बिखरना
और दर्द का न कहा जाना भी लिखा
वो लिखती रही खुद की कहानी
और खुद को ही सुनाती रही
वो पाती उसके दर से चलकर
उसके ही दर तक आती रही
वो लिखती रही वो सुनती रही
बस नही लिख पायी कभी तो
उस अकेलेपन को जिसमे वो खुद,ज़
ही खुद से मुखातिब थी
नहीं लिख पायी तो वो प्यार
जो करती रही वो दिल ही दिल में
पर कह न पायी कभी उसको खोने
के डर से
नहीं लिख पायी वो उस एहसास को
जो रोज़ उसे थोड़ा थोड़ा तोड़ता था।
मगर कब न जाने इन पातियों की राह बदली
और जा पहुंची एक अनजान दर पर
पाने वाली भी अचंभित थी ,परंतु
फिर भी पढ़ गयी उसकी कहानी
फिर एक और फिर एक और
सिलसिला चल निकला अनजान दर पर आने का वो पाती
एक अनजानी लिखती रही ,एक अनजानी पढ़ती रही
अनजाने ही अनजाने ,दो अंजनिया जुड़ती रहीं
जाने कब हो गयी ज़िन्दगी,दोनो की एक जुड़कर
एक तो थी ही बावली,अब दूसरी भी हो गयी उसको पढ़कर
वो लिखती थी खत एक गुमनाम मोहब्बत को और
ये कर बैठी मोहब्बत एक गुमनाम के,मुहब्बत भरे शब्दों से
उसको आस थी मिलेगी मुहब्बत एक दिन
इसको विश्वास था शब्दों को चेहरा मिलेगा जरूर
दोनों पर था सवार अनजान मोहब्बत का सुरूर
दोनो ही गम थी मोहब्बत में एक दूसरे से अनजान
न जाने क्या हश्र हुआ क्या मिला अंजाम
किसको मिली मोहब्बत , कौन हुआ बेज़ार
या फिर सब के हिस्से में आई जीती हुई सी हार
किस्सा ये अधूरा सही पर बड़ा ही रूमानी है
कोई कहता है कि कुछ तो सच है
कोई कहता है फकत कहानी है।
अनजाने ही अनजाने ,दो अंजनिया जुड़ती रहीं
जाने कब हो गयी ज़िन्दगी,दोनो की एक जुड़कर
एक तो थी ही बावली,अब दूसरी भी हो गयी उसको पढ़कर
वो लिखती थी खत एक गुमनाम मोहब्बत को और
ये कर बैठी मोहब्बत एक गुमनाम के,मुहब्बत भरे शब्दों से
उसको आस थी मिलेगी मुहब्बत एक दिन
इसको विश्वास था शब्दों को चेहरा मिलेगा जरूर
दोनों पर था सवार अनजान मोहब्बत का सुरूर
दोनो ही गम थी मोहब्बत में एक दूसरे से अनजान
न जाने क्या हश्र हुआ क्या मिला अंजाम
किसको मिली मोहब्बत , कौन हुआ बेज़ार
या फिर सब के हिस्से में आई जीती हुई सी हार
किस्सा ये अधूरा सही पर बड़ा ही रूमानी है
कोई कहता है कि कुछ तो सच है
कोई कहता है फकत कहानी है।
-सोमाली
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