कैसे कहूँ की प्रेम नहीं है
जज़्बातों के सैलाब में डूबती उतराती
हर जज़्बात के आगे बेबस हूँ
विमुख हो जाती हूँ सच से अक्सर
तेरे एहसासों से घबराकर
रूबरू होकर खुद से रोज़
न जाने कैसे खुद से हार जाती हूँ
आगे मुकम्मल जहां है मेरे पर
मैन चंचल बीते वक़्त को जाता है
नफरत नहीं तो मोहब्बत भी नहीं है
अजीब सी कश्मकश है अधूरे रिश्ते की
साथ कि ख्वाहिश भी है और
दूरियों की दरकार भी
अधूरेपन में पूर्णता की जुस्तजू है
और एक बेमतलब सी आस भी
मैं रहूँगी मैं, तुम,तुम ही, मिल कर हम न होंगे
अधूरी सी कहानी का मैं सार लिए बैठी हूँ
अर्थ नहीं जानती इस सबका पर
कैसे कहूँ की प्रेम नहीं है।
-सोमाली
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