टुकड़े- टुकड़े में यूँ बंटी मैं,की मिलता ही नहीं अब कोई भी सिरा
खोजती फिरूँ कब तक राहों में, की कहाँ -कहाँ कतरा मेरे अस्तित्व का गिरा ,
जब भी बैठी जोड़ने टुकडो को, हर बार हुआ यूँ ही
ढूँढा एक टुकड़ा तो फिर न अगला सिरा मिला,
छलनी करती रही हर बार जाने कितनी वेहशी निगाहें जिस्मो- जान मेरा
न जाने कितनी बार मुझे उन दहशत के सायों ने आ घेरा
जो भी मिले यहाँ बनकर हिमायती, सब वो जिस्म के प्यासे थे
दिए थे जो गम के आलम में, झूठे सब वो दिलासे थे
कब तक सहती वार पर वार यूँ मैं ,की बिखरना ही था यूँ एक दिन
बिखरी इतने टुकडो में की फिर न कभी सिरे से सिरा मिला............
कोशिश भी जब लाख की जोड़ने की तो
बस इक उथला सा चेहरा मिला ..........
खोजती फिरूँ कब तक राहों में, की कहाँ -कहाँ कतरा मेरे अस्तित्व का गिरा ,
जब भी बैठी जोड़ने टुकडो को, हर बार हुआ यूँ ही
ढूँढा एक टुकड़ा तो फिर न अगला सिरा मिला,
छलनी करती रही हर बार जाने कितनी वेहशी निगाहें जिस्मो- जान मेरा
न जाने कितनी बार मुझे उन दहशत के सायों ने आ घेरा
जो भी मिले यहाँ बनकर हिमायती, सब वो जिस्म के प्यासे थे
दिए थे जो गम के आलम में, झूठे सब वो दिलासे थे
कब तक सहती वार पर वार यूँ मैं ,की बिखरना ही था यूँ एक दिन
बिखरी इतने टुकडो में की फिर न कभी सिरे से सिरा मिला............
कोशिश भी जब लाख की जोड़ने की तो
बस इक उथला सा चेहरा मिला ..........
-सोमाली