Tuesday 6 November 2012

……हर काली रात के बाद होता एक सवेरा सुनहेरा देखा है






रुकी हुई हैं  कुछ बाते, लबो तक आते आते 
की बातों का असर दिलो पे होते कुछ गहरा देखा है ,

कैद हैं कुछ ख्वाब जागती रात की इस वीराने में 
की सपनो पर हमने अश्को का पहरा देखा है 

बहुत हलचल है इसकी गहराई में 
ऊपर से जिस  पानी को तुमने शांत ठहरा देखा है , 

नाज था कभी जिन्हें अपनी उड़ानों पर 
आज भटकते उन्हें हमने सहरा-सहरा देखा है,

वार दिए अपने सपने और खुशियाँ जिनकी परवरिश में 
आज उन्ही संतानों को अपने माँ-बाप के बोझ से होते दोहरा देखा है,

नकारे किसको और किस पर यकीन करे 
की हर रोज़ हमने नियति का एक नया चेहरा देखा है,

छंट जाएगी हर धुंध बस थोडा धीरज रख दोस्त 
की हर काली रात के बाद  होता एक सवेरा सुनहेरा  देखा है 

-सोमाली 

  


  



Saturday 28 July 2012

मजबूर गुनेहगार





मगरूर थी या मजबूर वो ,कौन पूछने जायेगा उससे 
सब बन बैठे हैं मालिक उसके,वो बस एक कांच की गुडिया हैं,

 समझा  नहीं  कभी  इंसान  उसे ,
खेलते रहे उससे जैसे ,बस  वो मनोरंजन का एक जरिया है

होती रूह आहत उसकी ,हर रात लुटती आबरू के साथ 
पड़ जाती अनगिनत सिलवटे दिल पर भी,उस सिकुड़ते  चादर के साथ  

लहू के अश्क पीकर ,युहीं घुट घुट कर जीती है 
लिए झूठी मुस्कान लबो पर,तनहाइयों के अंधेरों में जख्मो को सींती  है ,


तरसती है, दो सच्चे प्यार के बोल सुनने को...
हर रात व्यवसाय के तराजू में तुलती है 

चुनती  है रोज़ उन मसले हुए ख्वाबो को, बिखरे  कांच के टुकडो में से ,
जो बिखर जाते हैं  बिस्तर पर टूट कर  चूड़ियों के टुकडो के साथ ,


बस पड़ी रहती है जडवत सी,पत्थर बनकर,
किसी की हवस  मिटाते बेजान से  एक जिस्म की तरेह

फिर अपने तार- तार हुए दामान को समेटकर  आहत ह्रदय से हर बार  
 हो जाती तैयार ,लिए झूठी मुस्कान `बिखरने को फिर एक बार 

बिखरते -समेटते इन लम्हों में  ही उम्र सारी बंध जाती है 
बेमन से किये समर्पण से ,हर रात बे-इन्तेहाँ दर्द पाती है 

हार कर अपनी नियति से,हालात से समझोता कर जाती  है 
बेगैरत सी ज़िन्दगी में ,बस जीने की रस्म निभाती है 


टूटी है जो पहले से ही ,दुनिया उसे ओर रुलाती है,
बींध कर शब्द-वाणो से ,रूह उसकी छलनी  कर जाती है  

बने रहते हैं  शरीफ ,हमेशा ही  सत्चरित्र 
जो आकर इन बदनाम गलियों में भी, होते नही बदनाम


और वो मजबूर  यहाँ  त्रियाचरित्र कहलाती है 
सभ्य समाज के लिए बदनुमा दाग बन जाती है

बस पूछती है सवाल दुनिया उससे ,और उसके गुनाहों का हिसाब दिखाती है 
कोई नहीं पूछता  उससे की कैसे घायल ह्रदय में, ये जख्म गहरे  छुपाती है


 बेगुनाह होकर भी, वो क्यूँ गुनाहों का बोझ उठाती है 
आखिर  क्यों कोई नहीं  जानना चाहता की कैसे एक मासूम ,तवायफ पेशावर बन जाती है....  

 ........सोमाली  



Wednesday 16 May 2012



...... कुछ अनकहे से जज्बात.


 1. बस लफ्जों की तलाश है मुझको,
    वरना चेहरा जज्बातों का तो कबका दिल में बना लिया
    काश मिल जाये कुछ अलफ़ाज़ उसमे से,
    बयां करने को दिल-- हालात मेरे,
    पुलिंदा जो शब्दों का दिल में बना लिया.....


 
2. भर देता है जो जख्म  वक़्त,क्यूँ फिर खुद ही वो जख्म  कुरेदता है
   क्यूँ पुरानी यादों के धागों को उधेड़ता है,
   गर जीता इक दिन भी, वक़्त ये ज़िन्दगी हमारी
   तो जानता की कैसे इंसान, हर लम्हे में अपनी मौत भी सहेजता है ..

 
3. टूटे सपनो के शीशे जब चुभने लगे आँखों में 
    
तो दर्द आंसुओं में ढल गया ,
    
एक कतरा , बन चिंगारी यूँ  गिरा ,
    
मेरे अरमानो के आशियाने पर की ,
    
तिनका-तिनका मेरे आशियाने का जल गया ........... .

 .

4. अधर तो कांपे थे पर, अलफ़ाज़ बहार सके,
      दिल की बात हम जुबां पर ला सके ,
      जख्म कितने गहरे हैं ,ये तुमको दिखा सके,
      बेबसी का आलम हमारी ये देखिये
      की बेंतेहान दर्द में भी हम आंसू बहा सके
              
                        -सोमाली
                     

 

Tuesday 7 February 2012

.........मुझमे कुछ तेरा सा अब भी कहीं बाकी है



1.    पलकों  में तेरी यादों के साए अब भी बाकी हैं,
साँसों में खुशबू तेरे संग बिताये लम्हों की अब भी बाकी है  ,
कानो में वो सुगबुगाहट सी अब भी बाकी है,
जेहन में तेरे कदमो की वो आहट सी अब भी बाकि है,
यूँ तो कर चुकी मैं टुकड़े- टुकड़े मुझमे समाये तेरे हर एहसास को ,
फिर भी मुझमे कुछ तेरा सा अब भी कहीं  बाकी है  

2.     सब कुछ भूल गयी, फिर भी कुछ याद है
            आज भी मेरी  हर बात में, तेरी ही बात है
            हर चीज़ तुझसे जुडी हुई मिटा दी
            पर खुद को मिटा सकी
            ये मजबूरी है मेरी और बदकिस्मती तेरी
            की जब तक जिन्दा हूँ तेरी यादें भी साथ है


  3. ढूंढ रही हूँ मैं ,की इन रास्तो में कोई तो रास्ता मिले
          जहाँ तेरी यादो के साए हो, मेरे साथ बस मेरी तन्हाई चले
          हाथ थामे मेरा ये खामोश शाम, बस यूहीं चलती रहे बिना ढले
          एक रात समेट्ले जहाँ मुझे, यूँ अपने आगोश में की
          मेरे मन का अंधकार, उसके अँधेरे से मिलता सा लगे गले
          एक राह.... जहाँ मेरे जज्बात और बेरंग सी जिंदगी को पनाह मिले


4.   सोचा था की इतनी नफरत करुँगी तुझसे, की जेहन से तेरा नामो - निशा मिटा दूंगी
         पर जानती नहीं थी की, नफरत करने के लिए भी तुझे याद करना पड़ेगा
         जितनी नफरत मैं करती गयी ,उतनी ही यादें बढती  गयी
         और नफरत के साये  में फिर तुझसे मोहब्बत बढती  गयी .......
         अब तुझसे नफरत करती हूँ या मोहब्बत, मैं भी नहीं जानती
         जानती हूँ तो सिर्फ इतना की, तुझसे अगर नफरत भी करुँगी,तो भी सिर्फ मोहब्बत ही करुँगी ....

                                            
  -सोमाली